मंगलवार, 4 जुलाई 2017

किसान भी बदल गए

***************निश्चय ही भारत बदल रहा है। वोटतन्त्र के कारण हमारे देश में  आरक्षण ,सुविधा  एवं छूट माँगने तथा उन्हें पाने वालों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी  बढ़ती जा रही है।जनता के लिए सुविधाओं का बढ़ना जहाँ अर्थ ब्यवस्था के बढ़ते सामर्थ्य  की परिचायक है वहीँ आरक्षण और छूट देश की प्रगति में सबसे बड़े वाधक हैं।इन्हीं बाधाओं के परिपेक्ष्य में कृषि ऋण माफ़ी के लिए किसानों का,अपने मूल स्वभाव की लक्ष्मण रेखा लाँघ कर, आन्दोलित होना  इस वर्ष की सर्वाधिक अचंभित करने करने वाली घटना है।इसे अन्य आंदोलनों की दृष्टि से देखना बहुत बड़ी भूल होगी क्योंकि इतिहास के क्रम  में आज भारत जहाँ पहुँचा है; उसका प्रथम श्रेय भारत के कृषक एवं कृषि को जाता है और कल भारत विश्वपटल पर कहाँ होगा ;यह भी कृषि के विकास एवं कृषक की खुशहाली पर निर्भर होगा।  अतः तमिल- नाडु  ,महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश ,पंजाब ,राजस्थान ,कर्नाटक व अन्य राज्यों में उठे किसान आंदोलन ,उनकी पृष्ठभूमि ,कारण और निवारण पर गहन विमर्श की आवश्यकता है। जिसे समाज अन्नदाता और जीवन दाता कहता रहा वह उचित मूल्य पर  साधन ,सुविधा की अपेक्षा से हट कर सरकारों से ऋण माफ़ी ,मुफ्त की बिजली ,छूट की खाद ,छूट के अन्य सारे संसाधन व फसल की ऊँचे दाम पर सुविधापूर्ण विक्री माँग रहा है।बहुत अटपटी बात है कि सास्वत दाता आदाता की भूमिका में सामने है।
***************विगत कुछ वर्षों से किसानों में आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ी हैं परन्तु आत्महत्या करने वालों की सूची में केवल  किसान ही हैं ;ऐसा नहीं है। नौकरी या सेवा क्षेत्र के लोग ,उद्योग करने वाले ,व्यवसायी ,छात्र ,व अन्य सभी वर्ग के लोग भी आत्महत्या करते रहे हैं और उनकी आत्महत्या के लिए उत्तरदायी आर्थिक ,वैयक्तिक  व मनोवैज्ञानिक कारणों की चर्चा भी सामने आती रही हैं।सारी दशाएँ समान होते हुए मात्र कृषक होना कोई ऐसा कारण नहीं है जो सहानुभूति विशेष की पृष्ठभूमि बनाती हो। हाँ ,चूँकि हमारा देश कृषि प्रधान देश है और आधा से ज्यादा आबादी कृषि से जुड़ी है,अतः इसकी बेहतरी के लिए सरकार एवं समाज के अन्य वर्गों द्वारा सर्वाधिक ध्यान  देने एवं सुविधाएँ बढ़ाने की अपेक्षा है।यदि तकनीक ,ऋण ,बिजली ,सिंचाई ,कृषि बीमा ,खाद ,बीज ,उत्पाद विपणन व  भण्डारण के साथ किसानों को नियमित विशेषज्ञ परामर्श की सुविधा मिलती रहे तो पारिवारिक ,सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व निर्वाह के लिए उसे अग्रिम पंक्ति में खड़ा दीखना चाहिए। उपभोक्तावाद के चलते विलासिता की वस्तुयें भले ही आज किसानों के लिए भी अपरिहार्य हो गई हैं परन्तु एक किसान को ऐसी इच्छा पूर्ति के लिए कभी भी फसली ऋण नहीं लेना चाहिए और हर हाल में अपनी रफ एवं टफ की छवि बनाये रखना चाहिए। स्व लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा दिया गया 'जय जवान -जय किसान 'का नारा किसानों को भी बहुत गहरा सन्देश देता है।एक किसान की जो छवि लोगों की दिलों में है ;उससे विरत होने पर आज उनकी गरिमा खण्डित हो रही है।
*************** किसान और किसानी को वर्तमान पड़ाव तक पहुँचाने वाले निमित्तों की जानकारी हेतु  उनसे जुड़ी मूल बातों पर ध्यान देना सन्दर्भ सहायक होगा।यथा साधरणतया खाद्यान्न, तेल ,मसाले, दूध  ,फल -सब्जी,गन्ना ,कपास इत्यादि  के उत्पादन ,पशुपालन ,बागवानी व उनसे जुड़े अन्य विविध क्रियाकलापों को खेती या किसानी तथा इन कामों में लगे लोगों को खेतिहर या किसान कहते हैं और खेती का सीधा सम्बन्ध खेत या जमीन से होता  है।फिर बात जब खेत और किसान की की जाय तो जहाँ हमारे देश में खेती योग्य जमीन घट कर आधी से भी कम बची हैं ,वहीँ सारे विकास और औद्योगीकरण के बाद भी कृषि पर निर्भर कुल जन संख्या देश की पूरी जनसँख्या की आधा से अधिक है।आज की स्थिति यह है कि आबादी के बढ़ते और परिवारों के बँटते तीन चौथाई से अधिक किसानों के पास चार बीघे या उससे कम कृषि योग्य जमीन बची हैं। इतना ही नहीं ,गाँवों में देश के सर्वाधिक बेरोजगार बसते हैं और वे भी अपने परिवारिक कृषि से जुड़ जाते हैं। ऐसे में लघु और सीमांत स्तर की खेती व इससे जुड़े अन्य उद्यमों में इतनी उत्पादकता शेष नहीं है कि इतनी बड़ी जनसँख्या को समाहित कर उपभोक्तावादी खुशियाँ सुनिश्चित कर सके।यह भी तथ्य कान खड़ा करने वाला है कि इतनी बड़ी मात्रा में मानव संसाधन एवं कृषि भूमि खपने के बाद भी भारत की कुल सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान सप्तमांश के आस पास ही है। संकेत स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में सराहनीय प्रगति के बावजूद विगत वर्षों में योजनाकारों ने इस क्षेत्र की सारी समस्याओं एवं भावी परिदृश्य पर ध्यान नहीं दिया।उल्टे वोट की राजनीति ने इन समस्याओं और अनुचित प्रलोभनों को सत्ता पाने का हथियार बना डाला।परिणाम सामने है। राजनीति से सुचिता गई और कृषि की मर्यादा डगमगाई ।
***************यदि राजनीति एवं अनुचित लोभ को अलग रख कर देखा जाय तो देश की प्रगति  में अद्वितीय योगदान के लिए  हर देशवासी को  किसानों पर सदैव गर्व  रहा है।ये किसान ही हैं जिन्होंने खाद्यन्न के लिए देश को आत्मनिर्भर ही नहीं निर्यातक भी बनाया। उनके ही पसीने से जहाँ उत्पादन में कई  गुणा बढ़ोत्तरी हुई वहीँ कृषि में नए -नए अवसर व विविधताएँ जुड़ी। भविष्य में इनके और बढ़ने की अपार  संभावनाएं हैं।एक समय था  जब खाद्यान्न की कमी के कारण देशवासियों से सप्ताह में एक दिन अन्न न खाने की अपील हुआ करती थी तथा पी एल चार सौ अस्सी के अंतर्गत आयातित गेहूँ ,मक्के के आटा पाने को भागम -भाग मचती थी ,आज उसी भारत के गोदामों मेँ पड़े अधिशेषों  का निष्तारण कठिन हो रहा है। इसका सम्पूर्ण श्रेय दीर्घावधि की हरित व श्वेत क्रांति जैसी सफल योजनाओं एवं हमारे कृषकों को ही जाती है। आज उन्नत कृषि का वह दौर है जब हमारे राज्यों में  कृषि उत्पादन बढ़ाने व किसानों की कमाई बढ़ाने की होड़ मची है और मध्यप्रदेश जैसे राज्य अधिक उत्पादन से उपजी समस्या झेल रहे हैं क्योंकि कृषकों के उत्पाद खरीदने वाले नहीं मिल रहे हैं। आपूर्ति बढ़ रही है परन्तु माँग परंपरागत एवं पूर्ववत है।फसल न बिकने ,उचित मूल्य न मिलने या फसल वर्बाद होनेसे ऋण लेने वाले किसान बैंकों को ऋण की अदायगी नहीं कर पा रहे हैं ,जिस कारण तनावग्रस्त हो रहे हैं।यही समस्यायें किसानों को आत्महत्या या आंदोलनों के लिए प्रेरित कर रही हैं।परन्तु स्वभावतः कठिनाइयों से जूझने वाले किसान, जिनसे संयम ,साहस और सहनशीलता भी परिभाषित होते रहे हों ,उनका उद्वेलित होना , हिंसात्मक आंदोलन पर उतरना,ऋण माफ़ी जैसा प्रगति विरोधी माँग करना या अवसादग्रस्त हो आत्महत्या करना सबको चौंका रहा है। कहाँ हैं स्व मैथिली शरण गुप्त की कविता में वर्णित किसान --
---------------------------------घनघोर वर्षा हो रही है ,गगन गर्जन कर रहा 
----------------------------------घर से निकलने को गरज कर ,वज्र वर्जन कर रहा 
----------------------------------तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं 
----------------------------------किस लोभ में वे आज भी,लेते नहीं विश्राम हैं  
 ***************  समय का निर्देश है कि आमदनी  के लिए किसानों द्वारा उपजाई पैदावार की शत प्रतिशत एवं उचित मूल्य पर त्वरित विक्री सुनिश्चित हो साथ ही उनके फसल ,पशुधन व बाग -बगीचों की व्यावहारिक एवं प्रचुर बीमा हो।शत प्रतिशत खरीद या खपत तभी सम्भव हो सकती है जब बहुत बड़े स्तर पर भण्डारण ,संरक्षण ,प्रसंस्करण और उत्पाद विविधीकरण हेतु उद्योगों की श्रृंखला स्थापित हों।कृषि उत्पादों को देश के एक कोने से दूसरे कोने तक त्वरित पहुँच के लिए एक अलग विशेष यातायात संजाल  की स्थापना भी समस्या समाधन की अनेक उपायों में एक है। इन नई आवश्यकताों से उपजी कृषि क्रान्ति को धरातल पर उतारने का समय है और सरकारें भी इसके लिए गंभीरता से आगे बढ़ रही हैं।देश की कृषि पर आधारित आबादी कितनी भी बढ़ जाय ,हमारी जोत जमीन की उर्वरा शक्ति एवं जलवायु की विविधता सबको समायोजित करने एवं खुशहाल रखने की सामर्थ्य रखती हैं। आवश्यकता है तो मात्र कुशल प्रबन्धन ,संयम एवं सही दिशा की।समस्याओं से अवसर पैदा होते है।अतः धैर्य पूर्वक समस्याओं से जूझना चाहिए। आत्महत्या कर अपने परिवार को बिपत्तिओं में झोंक जाना या हिंसा कर किसी और का घर उजाड़ देना,अथवा देश की सम्पत्तिओं को छति पहुँचाना, हमारे अन्नदाता किसान का चरित्र नहीं हो सकता है। ऐसे में विचारणीय है कि कहीं छद्म किसानों ने तो किसान आंदोलन नहीं खड़ा किया है या कृषक बन कर इतर लोग तो बैंकों से इतर उद्देश्यों के लिए ऋण ले- लिवा रहे हैं; फिर माफ़ी के लिए आन्दोलन चला रहे हैं।एक बार ऋण माफ़ी हो भी जाय तो क्या इसकी पुनरावृत्ति हो सके गी ? नीर क्षीर विलगाव न होने से यह बात आम हो रही है कि किसान भी बदल गए।---------------------------------------------------------मंगल वीणा
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वाराणसी ,दिनाँक 4 जुलाई 2017                                              mangal-veena.blogspot.com
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