सोमवार, 3 सितंबर 2012

सिच्छक हौं सिगरे जग को तिय....

*****************शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को समर्पित एक अनुरोधपत्र ****
***************शिक्षा रुपी अँगुली का संबल दे मानव सभ्यता को समय सापेक्ष निरंतर आगे बढ़ाने वाले शिक्षकों को शिक्षक दिवस (05 सितम्बर ) पर कोटिशःसाभार धन्यवाद। आज की वैश्विक महामारी करॊना के दौर से पूर्व विश्व प्रतिस्पर्धा में भारत की विकास दर सराहनीय चल रही थी , इसके लिए भी शिक्षकों को साधुवाद। वर्तमान कल-युग या भौतिकवादी युग में कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता कि  विज्ञान, व्य़वसाय, उद्योग एवं प्रबंधन में रोजगार के असंख्य अवसर दिलाने में हमारे शिक्षकों, प्रशिक्षकों एवं संकायों का शीर्ष योगदान रहा है और वे अनवरत हमारी सभ्यता को भौतिक उपलब्धियों के नये-नये उपहार दे रहे हैं।इतना ही नहीं वे अपार बौद्धिक सम्पदा निर्माण करने के साथ करोड़ों श्रम शक्ति को जीविकोपार्जन का प्रशिक्षण देकर उनके घरों में रोजी-रोटी का सहारा बना रहे हैं। गोस्वामी जी ने आज की शिक्षा का कुछ ऐसा  ही उद्देश्य बताया था कि "उदर भरे सोई धर्म सिखावहिं।"
***************शिक्षकों में हमें पूर्ण श्रद्धा है। फिर भी शिक्षक-दिवस पर "शिक्षक स्वयं क्या पाया  एवं क्या खोया" पर एक संक्षिप्त परिचर्चा भी सामयिक ही मानी   जायगी। आज शिक्षक विपन्नता की सीमा से बाहर निकलकर भौतिकवादी सम्पन्नता की ओर उद्यत हुआ है, यह एक उपलब्धि है जबकि वह आदर एवं आस्था विहीन हो रहा है, यह एक हानि है। शिक्षक सभ्यता को सतत आगे बढ़ा रहा है, यह एक प्रत्यक्ष उपलब्धि है, परन्तु शिक्षा के शिवत्व एवं सौन्दर्य पर संदेह उपजने लगा है-यह एक सचेतक हानि है। कल का सुरभिसिक्त  गुलाब आज निर्गंध किंशुक (टेसू) हो रहा है।
***************मूलतः शिक्षक वह है जो ज्ञान के साथ समाज के नैतिक संस्कारों की सुरक्षा का, शिक्षा के माध्यम से ,वायदा (गारंटी) दे। जो ऐसा नहीं करता वह गुरु, प्रशिक्षक, दीक्षक, दार्शनिक, उपदेशक या कुछ भी हो सकता है परन्तु शिक्षक नहीं हो सकता क्योकि वह समाज को तो सभ्यतर बना ही नहीं रहा है। वह शिक्षक दिवस पर बहुतों से चरण स्पर्श करा सकता है पर आत्म-संतुष्ट नहीं हो सकता क्योंकि उसने स्वयं को आदरणीय या नमनीय बनाया ही नहीं है। भारत में करोड़ों शिक्षकों एवं शिक्षितों के रहते, समाज को खोखला करने वाली बुराइयाँ जैसे  भ्रष्टाचार, कालाधन, जातिवाद, धर्मवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, महिला उत्पीडन, नशाखोरी इत्यादि  सुरसा की भाँति विकराल हो रही हैं । यह स्थिति पुष्ट करती है कि  वर्तमान शिक्षा के साँचे से संस्कारी सजावट की लकीरें मिटा दी गई हैं। आज शिक्षक प्राचीन भारत का भिच्छाभोगी नहीं है। मध्ययुगीन भारत का मास्टर भी नहीं है कि करे मास्टरी दो जन खाय। वह तो आज का सर्वसुख संपन्न, प्रचुर वेतनभोगी और शिक्षा-उद्यमी है जो समाज को नये-नये उत्पाद एवं विपणन की विधियाँ दे रहा है। ऐसे शिक्षकों से अपेक्षा है कि वे अब  भी साँचे को संस्कारिक बना लें और हमारे आज को कल में ऐसे ढालें कि वह सत्यम, शिवम्, सुन्दरम से ओत-प्रोत हो।
 ***************वैसे भी यह दुस्साहस ही होगा कि कोई गैरशिक्षक शिक्षक को शिक्षा दे; सो मेरा आशय उन्हें आज के दिन याद दिलाने का है कि  कोई लाख जतन कर लें परन्तु स्वर्णिम सपनों के भारत का निर्माण तब तक नहीं हो सकता जब तक शिक्षक हमारे सपनों को साकार करने का ब्रत नहीं लेते हैं। इसके लिए उन्हें सुदामा जी की इस मान्यता से बाहर निकलना होगा कि-
      "सिच्छक हौं सिगरे जग को तिय,
        ताको कहाँ तुम देती हो सिच्छा।।"
फिर अपनी पत्नी सुशीला को शिक्षिका के रूप में स्वीकार कर द्वारिका पुरी की ओर प्रस्थान करना होगा। तुलसी को अपने ढ़र्रे से  इतर रत्नावली से शिक्षा पाकर समाज-कल्याण के लिए समर्पित होना होगा।सामाजिक संत्रास से बाहर निकलने के लिए हर सीता को अनसूया से शिक्षा लेना होगा एवं मूर्ख कालिदास को महाकवि कालिदास बनने के लिए विद्योत्तमा की शिक्षा पर अमल करना होगा। ऐसा कुछ अवश्य घटित हुआ था कि लोग कहते हैं "उपमा कलिदासस्य।" भारत के सन्दर्भ में आज का दिन चाहता है कि शिक्षक आपसी विमर्श से अपना ऐसा आदर्श  निरूपित  करें कि  भारत का हर शिक्षक हर उदाहरण से बेहतर हों। तभी स्व सर्वपल्ली डा  राधाकृष्णन  जैसे शिक्षक के सपनों का भारत विश्व क्षितिज पर उदित हो सके गा। -----------------------------मंगलवीणा  
वाराणसी ,दिनाँक 03 सितम्बर  2012 --------------mangal-veena.blogspot.com 
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अंततः
 पडोस की दुकान से कुछ घरेलू सामान खरीदा जिसकी कीमत बनिया  ने 90 रुपयें बताया । मैंने एक 100 रुपयें का नोट दिया । सामान के साथ बनियाँ ने मुझे दो ईट काउंटर से आगे बढ़ातें हुयें बोला " आज कल ईंट  हॉट केक की तरह बिक  रहा है। इसे छुट्टा के बदले दे रहा हूँ। यदि कल वापस करियेगा, 12 रुपयें दूंगा।" मैं निरुत्तर था। मंहगाई की जय हो। आने वाले दिनों में लोग भट्टों से ईंट खरीदने की सोच भी नही पाएंगे, पंसारी इन्हें दो चार की संख्या में बेचेंगे।-------------------------मंगलवीणा 
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