***********पुण्य सलिला गंगा तीर्थराज प्रयाग में यमुना और सरस्वती को समाहित करती है और यही इनका मोक्षदायी संगम बनता है जहाँ कभी अमृत कुम्भ से कुछ बूँदें गिरीं और इस स्थान को सनातन धर्मियों केलिए अनादि काल से तीर्थराज प्रयाग बना दिया । यही पावन गंगा संगमस्थल से आगे बढ़ कर विन्ध्याचली के गले लगती है और देखते ही देखते शिव प्रिया काशी के गले का चंद्रहार बनती है।समय इस मनोहारी दृश्य का अतीत से साक्षी रहा है और जाने कितने युगों तक भविष्य में साक्षी रहेगा।इस पुरातन काशी की धार्मिक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,साहित्यिक एवं शैक्षिक महत्ता किसी से छिपी नहीं है ।सदियों से यह नगरी एक जाज्वल्यमान प्रकाश स्तम्भ की तरह मानव सभ्यता की प्रभा अनवरत बिखेरती रही है । ऐसे केंद्र बिन्दु वाले इस वाराणसी जनपद के निवासियों की जीवन शैली भी विविधातापूर्ण एवं अप्रतिम है।
***********इस जनपद में पुण्यसलिला के दोआबे से दो -ढाई किलोमीटर दूर है-- एक गाँव शिवपुरवा जिसकी आबादी ऊँचे -नीचे एक हजार है । लगभग हर जाति और वर्ग के लोग यहाँ रहते हैं । गाँव के बड़े -बूढ़े कहते हैं कि चार सौ साल पहले बलिया से एक राजपूत ,पास के किसी गाँव से एक ब्राह्मण ,एक हेला मुस्लिम ,एक बनिया ,दो हरिजन एवं एक गड़ेरिया (भेड़ बकरी पालने वाला )परिवार आ बसा था ;जो आज एक गाँव का रूप ले चुका है । बाद के वर्षों में कुछ और जाति के लोग भी आ बसे हैं। गाँव में दो -ढाई सौ साल पहले पूर्वजों द्वारा स्थापित शिव मंदिर है जिसके मंडप ,प्रांगण और अंगनबाड़ी का बंध मात्र वह संकुल है ;जिसे गाँव का सार्वजनिक स्थल कहा जा सकता है । तीज -त्यौहार हो ,किसी के घर शादी हो ,सभा -पंचायत हो ,गाँव में किसी साधु -फकीर या अफसर का आगमन हो ;यह शिव मंदिर गतिविधियों का केंद्र बना रहता है । यह वह मंदिर है जहाँ हेला और पंडित दोनों की समान भागीदारी एवं माँग है ।अहाते में एक कुआँ है जिससे श्रमदान केरूप में बाल्टी एवं गागरे से पानी निकाल कर मंदिर की बगिया को गाँव वालों ने क्या हरा भरा कर रखा है कि हठात थोड़ी देर यहाँ बैठ जाने का जी करता है ।
***********गाँव की बढ़ती आबादी के दबाव में बुद्धू गड़ेरिया सपरिवार इसी गाँव के बाहर बाप -दादों से मिली एक बीघे जमीन में अपना नया घर बना कर रहने लगा है । वह अपने वय के छठे दशक की संधि पर है फिर भी हट्टा -कट्ठा गठीला शरीर है और आज भी दस -बारह घंटे काम करने की उसमें मनसा ,वाचा ,कर्मणा क्षमता है । अपने जमाने में दो जमात पास यह बुद्धू गड़ेरिया अपनी सोच ,सादगी ,कला प्रेम ,विचारधारा एवं समाजिकता के लिए शिव पुरवा में ही नहीं आस पास के गाँवों में भी आदर से संबोधित किया जाता है । सब मिलाकर वह शिव पुरवा का कर्मठ ,विचारवान एवं अनुकरणीय नागरिक है । मात्र निवासी नहीं ।
***********मुझे इस नागरिक के जीवन दर्शन में बहुत दिलचस्पी रही है । कभी तथागत की कर्मभूमि ,वेदव्यास एवं उद्दालक ऋषि की तपस्थली व अश्वमेध की उद्घोष करने वाली धरती पर एक गाँव की सीमा तक कार्यशील साधारण व्यक्ति में दूसरों के लिए मार्ग दर्शक व प्रेरणा देने वाले तत्व क्या हो सकते हैं ?यह प्रश्न हैरतअंगेज हो सकता है । परंतु क्या यह इतिहास का जांचा परखा या देखा गया सच नहीं है कि साधारण गुणों को अपने जीवन में सटीक क्रियान्वयन से जोड़नेवाले ही महान मानव साबित हुए हैं ,चाहे उनका नाम गौतम बुद्ध ,कबीर ,गाँधी या कुछ और रहा हो । कम या अधिक इसी साधरणपन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस गड़ेरिया के जीवन के दो पहलू हैं ,जो उसे आम से खास बनाते हैं और लोग उसे पसंद करते रहे हैं ।बात कला की हो या गाँव के दो कुनबों के बीच कलह की ;समस्या व्यक्तिगत हो या सामूहिक ;बातें गँवई अर्थव्यवस्था की हो या राजनीति की ;इस बुद्धू की टिप्पणी बहुत ही सहज और दो टूक होती है । अतः जब कभी फुरसत होती ,मैं भी कुछ न कुछ जानने की अभिलाषा लिए अपने समय के सदुपयोग के लिए बुद्धू गड़ेरिया के पास पहुँच जाता । सम्बोधन में मैं उन्हे चाचा कहता । उम्र में बहुत छोटा होने के कारण वे मुझे मेरे नाम सुनील से बुलाया करते ।
***********बुद्धू गड़ेरिया का कुनबा इस प्रकार है -पत्नी सुदामा ,दो बेटियाँ प्रभा व प्रतिभा ,एक बेटा प्रयास ,बहू मीरा व उसके दो बेटे राहुल एवं वरुण । बड़ी बेटी का विवाह हो चुका है । पिता ने उसे स्नातक तक की शिक्षा दिलवाई है । प्रयास की उम्र करीब पैंतीस वर्ष है और नौवीं कक्षा तक पढ़ाई के बाद गृहस्थी में लग गया है । वह शहर से गाँव तक ,दवा से आश्रितों के शिक्षा तक ,खान -पान से बाजार तक पारिवारिक रिश्तों से गँवई संबंधों तक सारी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभाने लगा है ।बेटी प्रतिभा व दोनों पौत्र क्रमशः ग्यारहवीं ,आठवी एवं छठी कक्षा में पढ़ रहे हैं ।पूरा परिवार वैचारिक ताल मेल के ऐसे सूत्र में पिरोया है जिसमें कहीं किसी गाँठ की आशंका नहीं । सब कुछ सीधा -साधा परंतु कर्मठता की नींव पर आत्मनिभारता की बुलंद है ,यह कुनबा । यही आत्म निर्भरता इस परिवार की पूँजी है और यही वह मानक है जो पूरी अर्थ तंत्र व्यवस्था को परिभाषित करने का दम भरता है । अतः इस इकाई से समाज की वर्तमान जटिलताओं को समझने की जिज्ञासा मेरे अंदर सदैव बनी रही है ।
***********इस परिवार का पेशा है -तीन चौथाई बीघे जमीन पर सघन खेती ;छोटे स्तर पर पशुपालन ;भेड़ -बकरिओं के ऊन से देशी कंबल बुनना ;खाली समय में गाँधी चरखे पर सूत कातना ;रस्से बटना ;रहट्टे से खाचिए और झउए बनाना ,खटिए और मचिए बुनना वहीं पत्नी और बहू द्वारा ,जाड़े की मीठी धूप में बैठकर, कास और सरपत से टेकुरी के सहारे रंग -बिरंगी कुरई झपिया ,डलिया जैसी सजावटी समान बनाना तथा शेष महीनों में माँग के अनुसार कुरसिए से सजीली वस्त्र- वस्तुएं बनाना । गाँव की जरुरतमन्द महिलाओं को भी इनके यहाँ काम मिल जाता है ।साधारण गँवई कच्चे माल को यह परिवार अपनी कड़ी मेहनत ,कला और सामयिकता का वह पुट देता है कि इनके उत्पाद का स्थानीय बाजार और गाँव के लोगों में सम्मोहन चलता है । इन सबके पीछे है इनकी कला ,समय की समझ और हाथ में लिए काम के प्रति पूर्ण समर्पण ।
***********जिज्ञासा बस एक बार की बात है मैं ग्राम नागरिक से मिलने उसके घर जा पहुँचा ।वैशाख का महीना । दोपहरी ढल चुकी थी । संयोगवश ग्राम नागरिक थोड़ी देर पहले ही अपनी भेड़ -बकरियों के झुंड को, गाँव के बाहर पगडंडी पर ,अपने बेटे के हवाले कर घर आया था ।तेज धूप जनित थकान से आराम के लिए वह अपने घर से सटे नीम के पेड़ की छाया तले बिछी चारपाई पर निढाल पड़ा था । बगल में उसकी पत्नी एक बाल्टी पानी जमीन पर राखी थी और हाथ में एक लोटा गिलास लिए खड़ी -खड़ी उससे बातें कर रही थी । उसका पौत्र राहुल गेहूं के नरकुल से बने पंखे से हवा कर रहा था । खटिया पर ही एक किनारे कुरई में गुड़ के कई टुकड़े पड़े थे । पहुँचते ही मैंने उन्हें प्रणाम किया । आवाज पहचानते हुए दोनों चाचा और चाची ने खुश रहो के स्निग्ध प्रति उत्तर से स्वागत किया ।
***********गड़ेरिया उठता है ,मेरी पीठ थपथपाता है और पास में दूसरी खटिया बिछाते हुए उस बैठने का आग्रह करता है । राहुल को मुझे प्रणाम करने और गुड़ के साथ पानी का गिलास मेरे पास रखने का संकेत देता है । गुड़ खा कर पानी पीता हूँ और फिर कुशल क्षेम ।हल्के से पछुआ हवा का झोंका चलता है । नीम के पेड़ से निबौरियाँ गिरती हैं साथ ही हवा नीम के पत्तों से ढुलक कर बदन को जो शीतलता दे जाती है ;वह अनुभव करे सो जाने । सामने मुझे खेत में दिखता है -कहीं पपीता ,कहीं भिंडी, कहीं तोरई ,,कहीं कोंहड़ा तो कहीं लौकी ;सब हरा -भरा ।कतारबद्ध क्यारियाँ एवं बीच में एक गली सा रास्ता आगे उनके अलग से बने तीन कमरे बैठक तक पहुँचाता है । एक में पशुशाला ,दूसरे में चार,हुनर और खेती संबंधी ब्यवस्था और तीसरे में उनकी कार्यशाला है जहाँ वे जीविका की साधना करते हैं । एकाएक मैं देखता हूँ कि बाहर तार पर एक कम्बल लटक रहा है जो बुनाई और ढुलाई के बाद शायद सूखने हेतु टाँगा गया है ।
उस कम्बल पर सूर्यास्त के समय क्षितिज ओर से माल सी आकृति में अपने घर लौटती पंछी ,नीले आकाश में थके सूर्य की किरणों का बिखराव ,रबी फसल कटने के बाद धरती का बड़ा आवरणहीन भूखंड और इस भूखंड पर दूर कहीं अपने गंतव्य की ओर डग भरते पथिक का बड़ा मनोहारी दृश्य उकेरा गया है । रंगों के साथ दृश्यावली का ऐसा जीवंत समायोजन ऐसा लगता है मानो प्रकृति की एक विशेष घटना इस कम्बल रूपी कैनवस में बंद हो गई हो ।यह मूक भाषा में बोलती उनकी कला है ,साथ ही मनोरम छन -छन बदलती प्रकृति का संकेत भी । लेकिन किसी क्षण विशेष को अपने मन मस्तिष्क में बैठा लेना व हाथों से कम्बल के ताने -बाने में पिरोकर हूबहू मूर्त रूप दे देना क्या किसी सामान्य आदमी से संभव है ;बिल्कुल नहीं । निश्चय ही यह संभावना उन्हीं में पलती होगी ,जिनके पास प्रभु प्रदत्त प्रतिभा विशेष होगी । यही विधा तो कला है और इसी साधना के साधक को कलाकार कहते हैं । विषय की तन्मयता में डूबता जा रहा था की ग्राम नागरिक मुझे टोक देता है ,"क्या सोच रहे हो सुनील "
-मैं सामने टँगे कम्बल पर प्रकृति के पल विशेष का दृश्यांकन देख रहा हूँ । कितना वास्तविक और मनोरम है यह दृश्य ।
-हाँ ,इसकी बुनाई में भाव ,मन ,हाथ और कला का अच्छा सामंजस्य बैठ गया है ।तुम्हारी एकाग्रता से लग रहा है कि हमारा छायांकन ठीक ठाक उतर गया ।रुको !तुम्हें ऐसा ही एक प्रकृति चित्रण दिखाता हूँ ।
वह राहुल को इशारा कर थोड़ी दूर पड़ी एक थालीनुमा कुरई मंगाता है और उसकी तलहटी सामने करते हुए बताता है कि यह छायांकन (सीलूएट )इनकी दादी ने सरपत के के रेड़ को विभिन्न रंगों में रंग कर टेकुरी से उकेरा है । दृश्य की आइडिया में में मैंने जरूर मदद किया था ।
मैं इस कुरई को देखता हूँ तो देखता ही रह जाता हूँ । दोआबे की धारा के पास बोरियों में बालू भर कर अपने ऊँटों की पीठ पर लादे दो तीन ऊँटहारे अपने अपने ऊँटों के रस्से पकड़े हुए कतारबद्ध चले जा रहे हैं । पृष्ठभूमि में यहाँ -वहाँ पेड़ दीख रहे हैं । ऊपर दर्शित आकाश का रंग गोधूलि बेला का समय इंगित कर रहा है । रंगों का सामंजश्य बड़ा ही स्वाभाविक है । मेरे मन में विचार उठता है कि सच है ;जब भावुकता या संवेदना किसी कलाकार के मस्तिष्क में कहीं घनीभूत हो जाती है तो उचित अवसर पर वह कला के किसी न किसी विधा के रूप में हमारे सामने अवतरित हो जाती हैं । यदि कविता रूप में उतरी तो कवि ,शिल्प रूप में उतरी तो शिल्पी और चित्र रूप में उतरी तो चित्रकार । ऐसे ही अनेक रूप हैं कला और कलाकार के ।
***********मुझे लगा कि इस गड़ेरिया की आँखों और मस्तिष्क में किसी घटना या दृश्य को पकड़ने (कैच )करने की एवं अपनी किसी कृति में उकेर देने की विलक्षण दक्षता है जिसे हम मानवेतर या दैवी कह सकते हैं । अब मेरा मन परिस्थितिजन्य सोच से उबरने का उपक्रम करने लगा । हवा के मंथर झोंकों का ,मैं चारपाई पर लेट कर ,थोड़ी देर आनन्द लेना चाहता था । दिमाग को झटका दिया और ग्राम नागरिक से बोल पड़ा कि आज कल हमारी गर्मी की छुट्टियाँ हैं और ऐसी ही कुछ इधर उधर की बातों पर आप के अनुभव और सोच को जानने मैं आप के पास आ गया था । कला की गूढ़ता तो मुझे नहीं मालूम परंतु कलाकृतियाँ मुझे अच्छी लगती हैं । मैं कला की इस विधा पर फिर कभी कुछ और जानने की अपेक्षा करूँ गा ।
गँवई प्रसंग में भी आप अपनी बेबाक बातों के लिए जाने जाते हैं । क्या आप बतायें गे कि हमारे शिव पुरवा के लिए स्वराज या आजादी के क्या मायने ,नुकसान या फायदे हुए हैं ?
अच्छा तो सुनो । मैं इस विषय में कुछ स्वतः की अनुभूति बताता हूँ । मेरे गाँव में स्वराज का पहला संदेश चुनाव के रूप में आया था । तब से समय समय पर दस्तक देकर वापस दिल्ली ,लखनऊ चला जाता है और छोड़ जाता है गाँव में गुटबन्दी ,मनमुटाव ,रिश्तों में दरार व सबके सपनों पर पत्थर पानी । पिछले पचास वर्षों में यह स्वराज सड़क के रास्ते दो किलोमीटर दूर ,बिजली के तारों के रास्ते एक किलोमीटर दूर एवं नहर के पानी वाले रास्ते पाँच किलोमीटर दूर पहुँच कर आगे बढ़ गया है । दो वर्ष पहले दौड़ धूप करके प्रधान ने गाँव तक बिजली के तार खिचवा लाया और टेस्टिंग कर शिव पुरवा की पूरी आबादी को बिजली के लट्टुओं से रात में जगमग दिया । उस दिन गाँव में क्या उत्साह था । सबका मन बागबाग हो गया । लोग दौड़ पड़े कि स्वराज आ गया । परंतु कुछ दिनों बाद ए तार बेजान हो गए । सरकारी लश्कर आया और गया परंतु ए बेजान तार यत्र तत्र आज भी बेकार पड़े हैं । उधर खेतों का नहर के पानी से भेंट भी नहीं हुआ कि टैक्स वसूली का दबाव गाँव के काश्तकारों पर पड़ने लगा ।घुरहू ने कभी सहकारिता सोसाइटी से खाद लिया ही नहीं ,परंतु उसके नाम सोसाइटी का कर्ज सुरसा की तरह ब्याज दर ब्याज बढ़ता जा रहा है । उसने मंदिर में शीश झुकाया ,मस्जिद में सजदा किया ,प्रधान ,साहूकार के यहाँ गुहार लगाया । परंतु सोसाइटी के भ्रष्ट सचिव को द्रवित नहीं कर सका । घुरहू आज भी वह दिन याद करता है जब सोसाइटी के सचिव ने गवाही के नाम पर किसी दूसरे कागज पर अंगूठा का निसान लगवा लिया था । क्या यह सचिव किसी क्रूर जमींदार से कम अतताई और भ्रष्ट है ?रामू अहीर ने सचिव के यहाँ पहुँच लगा कर एक भैंस खरीदने के लिए आठ हजार मंजूर कराया । किन्तु बिचौली तिकड़म के उपरांत उसे छः हजार ही मिले । जैसे तैसे जुगाड़ कर एक दूधारु
भैंस खरीदा । गरीब पर गरीबी कुछ ज्यादा ही मेहरबान होती है । कुछ महीने बाद उसकी भैंस बीमार पड़ गई । रामू दौड़ा दौड़ा पास के बाजार में पशु डाक्टर के यहाँ पहुँचा । पता चला कि डाक्टर बाबू तो शहर गए हैं । निराश लौट कर वह अनेक देशी दवाई दिया परंतु अपनी भैंस को बचा न सका । अब ब्लॉक वाले भैंस के मरने का प्रमाण माँग रहे हैं । उत्पीड़न और वसूली वाले दुःस्वप्न का उसके घर साक्षात आगमन हो चुका है । स्वाधीनता से अभी तो कुछ नहीं बदला है । लोगों के जेहन में अंग्रेजीयत यथावत बनी हुई है ।हमें इस चारित्रिक संकट से उबरना ही होगा । जब तक नहीं उबरें गे अपेक्षित स्वराज हम तक नहीं पहुँचे गा ।
बुद्धू गड़ेरिया इतना कहते कहते बहुत गंभीर हो जाता है । चाची आवाज देती हैं "देखिए शायद चरवाहे लौट रहे हैं । दूर ऊपर आकाश में धूल उड़ने लगी है । "
मेरा ध्यान घड़ी पर जाता है । साढ़े चार बज रहे हैं ।
ग्रामनागरिक यह कहते हुए चल देता है कि सुनील तब तक तुम चाची से बात करो । शाम को खाना खा कर जाना ।
चाचा जी फिर कभी कहते हुए उठ पड़ा और उन्हें प्रणाम करते हुए घर की राह लिया ।
(आप ने इस अंक में बुद्धू गड़ेरिया के जीवन के दो आयाम देखा -एक कलाकार का ,दूसरा नागरिक का । एक कलाकार हृदय भी देश में व्याप्त चरित्र संकट से बेचैन है परंतु निराश नहीं । अगले अंकों में इस ग्राम नागरिक के अनेकानेक जीवन आयामों से एवं अंचलिकता का सार्वभौमिकता से मिलन कराने का प्रयास जारी रहेगा । रचना पूर्णरूपेण साहित्यिक एवं काल्पनिक है । ) क्रमशः -----
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4 th june 2025 ;Varanasi