शनिवार, 19 मार्च 2011

होली का हुलास

                                              

                              पंसारी की दूकान में  कल एक आदमी आया | बड़े उत्साह से अपने से कम उम्र वाले दूकानदार से बोला "मुन्ना, गुझिया बनाना है; ये सामान फटा फट दे दो -- काजू - ५ रूपये का, किशमिश - २ रूपए, पोश्ते का दाना २ रुपये, गरी- २ रुपये,पाव किलो सूजी ,आधा किलो मैदा  ।"  दूकानदार पुडिया बना कर उस आदमी को सामान पकडाया एवं उसके दिए पचास रुपये में से ३७ रुपये काट कर १३ रूपए वापस कर दिया | लम्बा डग भरते हुए वो आगे बढ़ गया| मै वहीँ खड़ा सोचने लगा कि जब काजू ५०० रुँपये, किशमिश २५० रुपये, पोश्ते का दाना ५५० रुपये, एवं गरी ७० रुपये प्रति किलो बिक रहें हों, वो आदमी पुड़ियों में  इन जींस के कितने टुकड़े ले  गया होगा एवं उनसे कितनी गुझिया  बन सकेंगी । कुछ भी हो उसकी इस खरीददारी ने उसके घर में होली की तैयारियों को रॉकेट सी रफ़्तार तो दे ही दी होगी । 

                                संपन्न लोग क्रय अपनी आवश्यकता (मात्रा) के हिसाब से करते हैं, परन्तु साधारण लोग अपनी आवश्यकता  को क्रय शक्ति में ढाल लेते हैं । गुझिया, पापड़ सबके घर बन रहे हैं I  लगने- लगाने के लिए रंग गुलाल, खाने खिलाने के लिए पापड़ गुझिया  , फिर तो होली ही होली है I

                                कैसे रिश्ते  कैसे नाते, गली गली में होली   है।
                                जो मन भावे सो कह डालो,बुरा न मनो होली है।
                                कटुता भूलो मस्ती लूटो, फिर तो होली होली है।
                               आज बने हम सभी भंगेड़ी,छ रा र रा ये होली है।

                               परन्तु सोचनीय है कि त्योहार की ए उमंगें सर्वत्र समान पेंग नहीं भरती हैं I  ये तीज त्योहार भी संस्कृति के अनमोल उपहार हैं जो हौसले की पात्रता पर बरसते हैं। मज़ा आता यदि पूरे  समाज में आर्थिक समरसता की उमंगे होती एवं होली का सब पर समान चटख रंग चढ़ता ।
                               मैंने भी सोचा है कि प्रति दिन मुझसे कुछ ऐसा हो जाय जिससे किसी के चेहरे पर, कुछ पल ले लिए ही सही, ख़ुशी दौड़ जाय ।
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दिनाँक 19 . 3 2011                       mangal -veena .blogspot . com
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