मंगलवार, 8 सितंबर 2020

सेंगर राजपूतों का रोमाँचक इतिहास

 सेंगर राजपूतों की एक बसाहट-भदिवाँ  भी -------------------------

***************बालपन से 'आप कौन से राजपूत हैं 'का जवाब 'मैं सेंगर राजपूत हूँ 'कहते सात दशक बीत गए। मन में जिज्ञासा हुई कि ए सेंगर,ए राजपूत कौन हैं  जिनके हम वंशज हैं। फिर मैंने राजपूतों विशेषकर सेंगर राजपूतों के उद्भव ,विस्तार और वर्तमान को उपलब्ध साक्ष्यों ,परम्पराओं ,कुलधर्मिता ,श्रुतियों ,पौराणिक कथाओं और राजपूतों के उपलब्ध इतिहास को देखा ,सुना ,पढ़ा, गुना और धुना। फलतः मैंने इस राजवंश को त्रेतायुगीन श्रृंगी ऋषि से प्रारम्भ होकर आज सम्पूर्ण अविभाजित भारत व श्रीलंका तक विस्तारित पाया।चूँकि कोई क्रमबद्ध इतिहास सुलभ नहीं है अतः टूटी कड़ियों को जोड़ कर 'निश्चित रूप से ऐसा ही था 'वाला इतिहास नहीं बनाया जा सकता। लेकिन मुझे अपने प्रयास से बहुत ही आत्मसंतुष्टि मिली कि हमारी वंश परम्परा कुछ ऐसे ही यहाँ तक पहुँची है।आइए चलते हैं  इस वंश यात्रा पर विहंगम दृष्टि डालने।     

क्षत्रिय कौन,फिर सेंगर क्षत्रिय कौन -----------------------

********हमारे सनातन धर्म या जीवन पद्धति में स्वभावज गुणों से प्रेरित कर्मों के आधार पर  मानव समाज को  चार वर्णों; अर्थात ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र; में विभाजित  किया गया है। श्री मद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय  में अर्जुन के वर्ण विषयक शंका का समाधान करते हुए भगवान  श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया कि क्षत्रिय कौन है।यथा -

***************शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं। 

***************दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं। (१८/४३ )

जिनका बहादुरी ,तेज ,धैर्य ,दक्षता ,युद्ध से अपलायन ,दान तथा ईश्वरभाव से सबका पालन करना स्वाभाविक कर्म है , वे क्षत्रिय हैं। ए ही क्षत्रिय आगे विस्तार पाते हुए छत्तीस उपजातियों में विभाजित हुए। यथा -

***************[+दस रवि से दस चंद्र से ,बारह ऋषिज प्रमान।**

*************** चार  हुतासन सों भयो ,कुल छत्तीस वंश प्रमाण। ]

इन्ही बारह ऋषि वंशजों में सेंगर राजपूत प्रथम वरीयता क्रम में आते हैं। सेंगर अपनी आध्यात्मिक रूझान , संघर्षशक्ति एवँ बहादुरी के अतिरिक्त अपने संस्कार और सभ्यता के लिए सम्पूर्ण राजपूतों में आदरणीय रहे हैं। क्षत्रिओं के श्रृंगार कुल होने के कारण भी इन्हें सेंगर कहते हैं।इन ऋषिवंशी राजपूतों का गोत्र गौतम ,वेद यजुर्वेद ,गुरु विश्वामित्र व कुलदेवी विंध्यवासिनी हैं।इनका पहचान ध्वज लाल होता है तथा पूज्य नदी सेंगर है। बलिया संभाग के राजपूतों के कुलदेवता श्रीनाथ जी रसरा बलिया हैं। ए राजपूत दशहरे के दिन कटार की पूजा करते हैं।  

**************************सेंगरों की वंश परम्परा ****************************************

रामायणकालीन साक्ष्य एवँ वर्तमान तीर्थस्थल :------------------------

***************श्री राम की बड़ी बहन  शान्ता थीं जिनकों ग्रहीय प्रतिकूलता के कारण श्री दसरथ जी एवँ माता कौशल्या ने अंगदेश के राजा रोमपद व रानी वर्षिणी को पालन हेतु गोंद दे दिया। रानी वर्षिणी और कौशल्या जी सगी बहनें थी। इस प्रकार शान्ता की परवरिश उनकी मौसी और मौसा ने किया। एक समय जब अंगदेश में बहुत  भीषण अकाल पड़ा तब  राजा ने महर्षि विभाण्डक के युवा तपश्वी पुत्र श्रृंगी ऋषि को बुला कर इन्द्र पूजन का अनुष्ठान करवाया जिससे अंगदेश में खूब वर्षा हुई और सर्वत्र खुशहाली की लहर दौड़ पड़ी। राजा और रानी अति प्रसन्न होकर  शान्ता का हाथ श्रृंगी ऋषि को सौंप दिए।इस दम्पति को दो संतानें हुई ;1. अर्गल से गौतम वंश और 2. पदम से सेंगर वंश चला।चूँकि पौराणिक काल से अंग देश बिहार के पूर्वी भाग व बंग के पड़ोस में स्थित रहा है अतः  सेंगरों की वंश परंपरा वर्तमान में बिहार के लखीसराय  (अंग देश )से ही प्रारम्भ होती प्रतीत होती है।  यहाँ आज भी श्रृंगी ऋषि धाम नामक एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि यहीं पर श्रृंगी ऋषि और शान्ता की जीवन यात्रा से ऋषि वंश सेंगरों की उत्पत्ति हुई थी और यहीं आश्रम में श्री राम तथा उनके भाइयों का मुंडन संस्कार भी संपन्न हुआ था।परन्तु यह भी सत्य है कि रामायण काल में  आगरा क्षेत्र में रुनकता के पास यमुना किनारे सिंगला गांव में  श्रृंगी ऋषि की एक  तपोस्थली थी जहाँ पर पूर्व वर्णित  इनकी दोनों पुत्र संतानें पैदा हुई थीं। यह आज भी एक दर्शनीय स्थल है।वर्तमान में सेंगरों की सर्वाधिक बसाहट का आगरा से चल कर मैनपुरी ,इटावा ,जालौन ,कन्नौज ,कानपुर और रीवाँ के आसपास होना आगरे से आरम्भ इस वंश यात्रा की पुरजोर पुष्टि करता है।

ब्रह्मपुराण :------------------------- 

***************एक दूसरे मत डा ईश्वर सिंह मडाड रचित राजपूत वंशावली के अनुसार  ब्रह्मपुराण में वर्णन आया है कि  चंद्रवंशीय राजा महामना के पुत्र तितिक्षु ने भारत के पूर्वी भाग में एक राज्य स्थापित किया। इनके पुत्र बलि के पाँच पुत्र हुए जिन्हे बालेय कहा गया। इनके नाम थे अंग ,बंग ,सहय ,कलिंग और पुण्ड्रक। अंग की बींसवीं पीढ़ी में विकर्ण के सौ पुत्र हुए। सौ पुत्रों के पिता होने के कारण उन्हें शतकर्णि नाम से प्रसिद्धि मिली। इन्हीं के वंशज एक बड़े राज्य की स्थापना करते हुए पूर्वोत्तर एवँ  बंग होते हुए आंध्र पहुँचे।फिर  राज्य का विस्तार मालवा ,विदर्भ से नर्मदा तक किया।कालान्तर में इन्हीं के वंशज सिंहबाहु के पुत्र विजय ने सन 543 में  समुद्र मार्ग से जाकर लंका विजय किया और  पिता के नाम पर सिंघल राजवंश स्थापित किया। इसी कारण लंका को पूर्व में सिंघल द्धीप के नाम से जाना जाता था। शातकर्णी से ही सेंगर ,सिंगर ,सेंगरी इत्यादि नामों से जाने जाने लगे।

 कनार से जगमन पुर की यात्रा:-------------------------    

  *************** ग्यारहवीं शताब्दी तक  सेंगर चेदि,डाहर ,  मालवा ,कर्णावती (रीवाँ ) व आस पास कई प्रांतों तक फैलाव ले चुके थे।जब अन्य प्रांतों में ए पराभव की ओर बढे ,रीवाँ के मऊगंज को अपने राज्य का केंद्र बनाया।उनके द्वारा निर्मित गढ़ी जैसे नईगढ़ी ,मऊगंज ,मनगवां,इत्यादि आज भी उनकी उत्कर्ष गाथा हैं।कालांतर में मुगलों से हाथ मिला बघेलों ने इन्हें चुनौती दिया और ए रीवाँ रियासत के अधीन हो गए।  कर्णावती उदय से पहले ही सेंगरों ने जालौन ,कन्नौज ,इटावा ,मैनपुरी में अपना दबदबा स्थापित कर लिया था।जालौन के राजा विसुख देव ने कनार को अपनी राजधानी बनाया। इनकी शादी कन्नौज के गहरवार राजा जयचन्द की बेटी देवकाली से हुई। अपनी रानी के नाम पर उन्होंने देवकली नाम का नगर बसाया और बसीन्द(बसेढ़ ) नदी,,का नाम बदलकर सेंगर नदी कर दिया।सेंगर नदी आज भी मैनपुरी ,इटावा , कानपुर हो कर बहती है।विसुखदेव के वंशज जगमन शाह को जब बाबर ने पराजित कर कनार को तहसनहस कर दिया तब जगमन शाह के नेतृत्व में सेंगरों ने जालौन के दूसरे भूभाग पर जगमनपुर नाम की राजधानी की नींव डाली और पुनः एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया ।जगमनपुर के राजा आज भी सेंगरों के प्रमुख माने जाते हैं। और इस क्षेत्र के पचासों गांव में सेंगर बसते हैं जो अपने को कनारधनी कहते हैं। इन्हीं के वंशज रेलिचंददेव ने भरेह में अपनी राजधानी बनाई। इनके दसवें वंशज भगवंतदेव ने नीलकण्ठ भट्ट से भगवंत भाष्कर ग्रन्थ की रचना कराई थी। इसके बारह मयूख (अध्याय )हैं और यह आज भी हिन्दू लॉ का प्रमुख सन्दर्भ ग्रंथ है। वर्तमान में सेंगर राजपूतों की प्रमुख शाखाएँ चुरू ,कदम्ब ,बराही (बिहार,बंगाल,असम ),डहलिया आदि हैं। वर्तमान में सेंगर मध्य प्रदेश के रीवाँ और पड़ोस के उत्तर प्रदेश से जुड़े क्षेत्र ,उत्तर प्रदेश के जालौन ,अलीगढ ,फतेहपुर ,कानपुर,औरैया ,इटावा के भरेह, फफूंद  ,मैनपुरी ,वाराणसी ,बलिया तथा विहार के छपरा ,पूर्णिया आदि ज़िलों में पाए जाते हैं।

भरेह ,फफूँद (इटावा )से रसरा बलिया:----------------------- 

***************कनार काल के दौरान ही तेरहवीँ शताब्दी  मे भरेह , फफूंद (इटावा ) के कुछ सेंगर राजपूतों का साहसिक दल हरी(सूर) शाह और बीर शाह नाम के दो भाइयों के नेतृत्व में पूर्वांचल की ओर बढ़ा और गंगा घाघरा के बीच अपना राज्य स्थापित करने का उपक्रम किया। घने जंगल और एकान्त  की स्थिति के कारण इन्हें सामरिक लाभ मिला।परिणामस्वरूप सेंगरों ने न केवल इस बड़े भूभाग को राजभरों के अधिपत्य से मुक्त कर  सम्पूर्ण लखनेसर परगना पर अधिकार किया बल्कि इसके बैभव को पुनर्स्थापित किया। लखनेसर को शिव आराधना का महत्वपूर्ण केंद्र बनाया।इसके विशाल प्रांगण में लक्ष्मी नारायण और राधा कृष्ण मंदिर भी पूजित थे।हरी(सूर ) शाह के भाई बीर शाह के वंशज पास के सिकंदरपुर और जहानाबाद परगना तक फ़ैल गए जिन्हे आज बिरहिया राजपूत कहते हैं।रसड़ा बलिया इनके सत्ता का केंद्र रहा और यहीँ इनके पूज्य कुल देवता श्री नाथ जी की समाधि बनाई गई जो एक तीर्थ के रूप में पूजित है। यह राज्य अट्ठारहवीं शताब्दी तक एक सुगठित लोकतंत्रात्मक शासन के रूप में अनेकानेक आक्रमणों के बावजूद अविजित रहा ।सेंगरों में कोई राजा नहीं ,बल्कि संगठन व सामूहिक फैसले सत्ता सँभालती थी।ब्रिटिश काल में इन्होंने बनारस राज्य के राजा बलवंत सिंह व अंग्रेजों को जबरदस्त टक्कर दिया।

***************इन्हीं बसाहटों में रसड़ा से पंद्रह किलोमीटर दूर तमसा नदी के तट पर नगपुरा  और टीका देऊरी गाँव हैं।नगपुरा गाँव से बाहर  तमसा तट पर श्रीनाथ जी( पर्याय बाबा अमरदेव ,बाबा सत्य प्रकाश राव) की पाँच में से दूसरी समाधि स्थित है।श्रीनाथ जी दैवी शक्ति संपन्न सेंगर वंशीय बिभूति थे जो वहाँ सेंगरों के पथ प्रदर्शक एवं पूज्य होने के कारण उनके कुल देवता के रूप में पूजित हुए।श्रीनाथ जी शिव की आराधना करते थे और शैव मतावलम्बी थे। जिनको सेंगरों की परम्परा से परिचय पाना हो उन्हें रसरा के श्रीनाथ की समाधि पर होने वाले चक्रमणीय पञ्च वर्षीय मेले को देखना चाहिए जब बाबा को 151 क्विंटल गेहूँ का रोट चढ़ता है और देश विदेश से सेंगरों का जन शैलाब उमड़ पड़ता है।रसड़ा का श्री नाथ धाम एवं उसके चहुँ ओर फैले तालाब ,भींटे,भवन, मैदान व  ,जनश्रुतियाँ हर आगंतुक को सेंगरों की गणतांत्रिक समृद्ध शासन व्यवस्था से परिचित कराते हैं।   

अंततः टिका देउरी(नगपुरा ) से भदिवाँ :-------------------------------------  

***************अब हम बढ़ते हैं भदिवाँ की यात्रा पर जब अट्ठारहवीं उन्नीसवीं सदी के सन्धि काल में बनारस के बरथरा (चौबेपुर )निवासी एक रघुवंशी राजपूत ने अपनी पुत्री का विवाह टिकदेउरी के सेंगर परिवार में किया और अपने गाँव के निकट अमौली गाँव की अस्सी बीघा जमीन अपनी पुत्री और दामाद को उपहार में भेंट किया। बाद में यह दम्पति इसी जमीन पर आ बसी जहाँ भदिवाँ नाम की एक बसाहट आकर ले रही थी। धीरे धीरे इस बस्ती में ब्राह्मण , अन्य राजपूत ,अहीर ,सुनार,तेली , लुहार ,गड़ेरी ,पासी ,राजभर ,हेला (मुस्लिम )इत्यादि आ बसे और यह एक पूर्ण गाँव का आकर ले लिया।आज भी यह गाँव अमौली राजस्व गाँव का उपगाँव  है तथा वाराणसी के पहड़िया -बलुआ मार्ग पर दायीं ओर शहर से बारह किलोमीटर दूरी पर स्थित है।जाल्हूपुर ,विशुनपुरा ,उकथी ,सिरिस्ती ,भगतुआ,अमौली और अम्बा इसके पड़ोसी गाँव हैं। वर्तमान वर्ष 2021 की स्थिति यह है कि अन्य गाँवों की भाँति इस गाँव की चहल पहल भी कहीं खो गई है और रोजगार ,नौकरी के कारण परिवारों का पलायन जारी है। यहाँ से आगे भदिवाँ में सेंगरों की यात्रा व यथासंभव वंशावली विवरण अंकित करने का प्रयास होगा। क्रमशः---- 

अशोकविहार ,वाराणसी --------------------------------------------------- मंगला सिंह /मंगलवीणा  

दिनाँक 25 मार्च 2021----------------- -------    mangal -veena .blogspot @ gmail.com 

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बुधवार, 2 सितंबर 2020

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मंगलवार, 11 अगस्त 2020

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रविवार, 10 मई 2020

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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

ग्राम नागरिक (भाग एक )

  ***********पुण्य सलिला गंगा  तीर्थराज  प्रयाग में यमुना और सरस्वती को समाहित करती है और यही इनका मोक्षदायी संगम बनता है जहाँ कभी अमृत कुम्भ से कुछ बूँदें गिरीं और इस स्थान को सनातन धर्मियों केलिए अनादि काल से  तीर्थराज प्रयाग बना दिया । यही पावन गंगा संगमस्थल से आगे बढ़ कर विन्ध्याचली के गले लगती है और देखते ही देखते शिव प्रिया काशी के गले का चंद्रहार बनती है।समय इस मनोहारी दृश्य का अतीत से साक्षी रहा है और जाने कितने युगों तक भविष्य में साक्षी रहेगा।इस पुरातन काशी की धार्मिक,ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,साहित्यिक एवं शैक्षिक महत्ता किसी से छिपी नहीं है ।सदियों से यह नगरी एक जाज्वल्यमान प्रकाश स्तम्भ की तरह मानव सभ्यता की प्रभा अनवरत बिखेरती रही है । ऐसे केंद्र बिन्दु वाले इस वाराणसी जनपद के निवासियों की जीवन शैली भी विविधातापूर्ण एवं अप्रतिम है।
***********इस जनपद में पुण्यसलिला के दोआबे से दो -ढाई किलोमीटर दूर है-- एक गाँव शिवपुरवा जिसकी आबादी ऊँचे -नीचे एक हजार है । लगभग हर जाति और वर्ग के लोग यहाँ रहते हैं । गाँव के बड़े -बूढ़े कहते हैं कि चार सौ साल पहले बलिया से एक राजपूत ,पास के किसी गाँव से एक ब्राह्मण ,एक हेला मुस्लिम ,एक बनिया ,दो हरिजन एवं एक गड़ेरिया (भेड़ बकरी पालने वाला )परिवार आ बसा था ;जो आज एक गाँव का रूप ले चुका है ।  बाद के वर्षों में  कुछ और जाति के लोग भी  आ बसे हैं। गाँव में दो -ढाई सौ साल पहले पूर्वजों द्वारा स्थापित शिव मंदिर है जिसके मंडप ,प्रांगण और अंगनबाड़ी का बंध मात्र वह संकुल है ;जिसे गाँव का सार्वजनिक स्थल कहा जा सकता है । तीज -त्यौहार हो ,किसी के घर शादी हो ,सभा -पंचायत हो ,गाँव में किसी साधु -फकीर या अफसर का आगमन हो ;यह शिव मंदिर गतिविधियों का केंद्र बना रहता है । यह वह मंदिर है जहाँ हेला और पंडित दोनों की समान भागीदारी एवं माँग है ।अहाते में एक कुआँ है जिससे श्रमदान केरूप में बाल्टी एवं गागरे से पानी निकाल कर मंदिर की बगिया को गाँव वालों ने क्या हरा भरा कर रखा है कि हठात थोड़ी देर यहाँ बैठ जाने का जी करता है ।
***********गाँव की बढ़ती आबादी के दबाव में बुद्धू गड़ेरिया सपरिवार इसी गाँव के बाहर बाप -दादों से मिली एक बीघे जमीन में अपना नया घर बना कर रहने लगा है । वह अपने वय के छठे दशक की संधि पर है फिर भी हट्टा -कट्ठा गठीला शरीर है और आज भी दस -बारह घंटे काम करने की उसमें मनसा ,वाचा ,कर्मणा क्षमता है । अपने जमाने में दो जमात पास यह बुद्धू गड़ेरिया अपनी सोच ,सादगी ,कला प्रेम ,विचारधारा एवं समाजिकता के लिए शिव पुरवा में ही नहीं आस पास के गाँवों में भी आदर से संबोधित किया जाता है । सब मिलाकर वह शिव पुरवा का कर्मठ ,विचारवान एवं अनुकरणीय नागरिक है । मात्र निवासी नहीं ।
***********मुझे इस नागरिक के जीवन दर्शन में बहुत दिलचस्पी रही है । कभी तथागत की कर्मभूमि ,वेदव्यास एवं उद्दालक ऋषि की तपस्थली व अश्वमेध की उद्घोष करने वाली धरती पर एक गाँव की सीमा तक कार्यशील साधारण व्यक्ति में दूसरों के लिए मार्ग दर्शक व प्रेरणा देने वाले तत्व क्या हो सकते हैं ?यह प्रश्न हैरतअंगेज हो सकता है । परंतु क्या यह इतिहास  का जांचा परखा या देखा गया सच नहीं है कि साधारण गुणों को अपने जीवन में सटीक क्रियान्वयन से जोड़नेवाले ही महान मानव साबित हुए हैं ,चाहे उनका नाम गौतम बुद्ध ,कबीर ,गाँधी या कुछ और रहा हो । कम या अधिक इसी साधरणपन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस गड़ेरिया के जीवन के दो पहलू हैं  ,जो उसे आम से खास बनाते हैं और लोग उसे पसंद करते रहे हैं ।बात कला की हो या गाँव के दो कुनबों के बीच कलह की ;समस्या व्यक्तिगत हो या सामूहिक ;बातें गँवई अर्थव्यवस्था की हो या राजनीति की ;इस बुद्धू की टिप्पणी बहुत ही सहज और दो टूक होती है । अतः जब कभी फुरसत होती ,मैं भी कुछ न कुछ जानने की अभिलाषा लिए अपने समय के सदुपयोग के लिए बुद्धू गड़ेरिया के पास पहुँच जाता । सम्बोधन में मैं उन्हे चाचा कहता । उम्र में बहुत छोटा होने के कारण वे मुझे मेरे नाम सुनील से बुलाया करते । 
***********बुद्धू गड़ेरिया का कुनबा इस प्रकार है -पत्नी सुदामा ,दो बेटियाँ प्रभा व प्रतिभा ,एक बेटा प्रयास ,बहू मीरा व उसके दो बेटे राहुल एवं वरुण । बड़ी बेटी का विवाह हो चुका है । पिता ने उसे स्नातक तक की शिक्षा दिलवाई है । प्रयास की उम्र करीब पैंतीस वर्ष है और नौवीं कक्षा तक पढ़ाई के बाद गृहस्थी में लग गया है । वह शहर से गाँव तक ,दवा से आश्रितों के शिक्षा तक ,खान -पान से बाजार तक पारिवारिक रिश्तों से गँवई संबंधों  तक सारी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभाने लगा है ।बेटी प्रतिभा व दोनों पौत्र क्रमशः ग्यारहवीं ,आठवी एवं छठी कक्षा में पढ़ रहे हैं ।पूरा परिवार वैचारिक ताल मेल के ऐसे सूत्र में पिरोया है जिसमें कहीं किसी गाँठ की आशंका नहीं । सब कुछ सीधा -साधा परंतु कर्मठता की नींव पर आत्मनिभारता की बुलंद है ,यह कुनबा । यही आत्म निर्भरता इस परिवार की पूँजी है और यही वह मानक है जो पूरी अर्थ तंत्र व्यवस्था को परिभाषित करने का दम भरता है । अतः इस इकाई से समाज की वर्तमान जटिलताओं को समझने की जिज्ञासा मेरे अंदर सदैव बनी रही है ।
***********इस परिवार का पेशा है -तीन चौथाई बीघे जमीन पर सघन खेती ;छोटे स्तर पर पशुपालन ;भेड़ -बकरिओं के ऊन से देशी कंबल बुनना ;खाली समय में गाँधी चरखे पर सूत कातना ;रस्से बटना ;रहट्टे से खाचिए और झउए बनाना ,खटिए और मचिए बुनना वहीं  पत्नी और बहू द्वारा ,जाड़े की मीठी धूप में बैठकर, कास और सरपत से टेकुरी के सहारे रंग -बिरंगी कुरई झपिया ,डलिया जैसी सजावटी समान बनाना तथा शेष महीनों में माँग के अनुसार कुरसिए से सजीली वस्त्र- वस्तुएं बनाना । गाँव की जरुरतमन्द महिलाओं को भी इनके यहाँ काम मिल जाता है ।साधारण गँवई कच्चे माल को यह परिवार अपनी कड़ी मेहनत ,कला और सामयिकता का वह पुट देता है कि इनके उत्पाद का स्थानीय बाजार और गाँव के लोगों में सम्मोहन चलता है । इन सबके पीछे है इनकी कला ,समय की समझ और हाथ में लिए काम के प्रति पूर्ण समर्पण । 
***********जिज्ञासा बस एक बार की बात है मैं ग्राम नागरिक से मिलने उसके घर जा पहुँचा ।वैशाख का महीना ।  दोपहरी ढल चुकी थी । संयोगवश ग्राम नागरिक थोड़ी देर पहले ही अपनी भेड़ -बकरियों के झुंड को, गाँव के  बाहर पगडंडी पर ,अपने बेटे के हवाले कर घर आया था ।तेज धूप जनित थकान से आराम के लिए वह अपने घर से सटे नीम के पेड़ की छाया तले बिछी चारपाई पर निढाल पड़ा था । बगल में उसकी पत्नी एक बाल्टी पानी जमीन पर राखी थी और हाथ में एक लोटा गिलास लिए खड़ी -खड़ी उससे बातें कर रही थी । उसका पौत्र राहुल गेहूं के नरकुल से बने पंखे से हवा कर रहा था । खटिया पर ही एक किनारे कुरई में गुड़ के कई टुकड़े पड़े थे । पहुँचते ही मैंने उन्हें प्रणाम किया । आवाज पहचानते हुए दोनों चाचा और चाची ने खुश रहो  के स्निग्ध प्रति उत्तर से स्वागत किया । 
***********गड़ेरिया उठता है ,मेरी पीठ थपथपाता है और पास में दूसरी खटिया बिछाते हुए उस बैठने का आग्रह करता है । राहुल को मुझे प्रणाम करने और गुड़ के साथ पानी का गिलास मेरे पास  रखने का संकेत देता है । गुड़ खा कर पानी पीता हूँ और फिर कुशल क्षेम ।हल्के से पछुआ हवा का झोंका चलता है । नीम के पेड़ से निबौरियाँ गिरती हैं साथ ही हवा नीम के पत्तों से ढुलक कर बदन को जो शीतलता दे जाती है ;वह अनुभव करे सो जाने । सामने मुझे खेत में दिखता है -कहीं पपीता ,कहीं भिंडी, कहीं तोरई ,,कहीं कोंहड़ा तो कहीं लौकी ;सब हरा -भरा ।कतारबद्ध क्यारियाँ एवं बीच में एक गली सा रास्ता आगे उनके अलग से बने तीन कमरे बैठक तक पहुँचाता है । एक में पशुशाला ,दूसरे में चार,हुनर और खेती संबंधी ब्यवस्था और तीसरे में उनकी कार्यशाला है जहाँ वे जीविका की साधना करते हैं । एकाएक मैं  देखता हूँ कि बाहर  तार पर एक कम्बल लटक रहा है जो बुनाई और ढुलाई के बाद शायद सूखने हेतु टाँगा गया है । 
उस कम्बल पर सूर्यास्त के समय क्षितिज ओर से माल सी आकृति में अपने घर लौटती पंछी ,नीले आकाश में थके सूर्य की किरणों का बिखराव ,रबी फसल कटने के बाद धरती का बड़ा आवरणहीन भूखंड और इस भूखंड पर दूर कहीं अपने गंतव्य की ओर डग भरते पथिक का बड़ा मनोहारी दृश्य उकेरा गया है । रंगों के साथ दृश्यावली का ऐसा जीवंत समायोजन ऐसा लगता है मानो प्रकृति की एक विशेष घटना इस कम्बल रूपी कैनवस में बंद हो गई हो ।यह मूक भाषा में बोलती उनकी कला है ,साथ ही मनोरम छन -छन बदलती प्रकृति का संकेत भी । लेकिन किसी क्षण विशेष को अपने मन मस्तिष्क में बैठा लेना व हाथों से कम्बल के ताने -बाने में पिरोकर हूबहू मूर्त रूप दे देना क्या किसी सामान्य आदमी से संभव है ;बिल्कुल नहीं । निश्चय ही यह संभावना उन्हीं में पलती होगी ,जिनके पास प्रभु प्रदत्त प्रतिभा विशेष होगी । यही विधा तो कला है और इसी साधना के साधक को कलाकार कहते हैं । विषय की तन्मयता में डूबता जा रहा था की ग्राम नागरिक मुझे टोक देता है ,"क्या सोच रहे हो सुनील "
-मैं सामने टँगे कम्बल पर प्रकृति के पल विशेष का दृश्यांकन देख रहा हूँ । कितना वास्तविक और मनोरम है यह दृश्य । 
-हाँ ,इसकी बुनाई में भाव ,मन ,हाथ और कला का अच्छा सामंजस्य बैठ गया है ।तुम्हारी एकाग्रता से लग रहा है कि हमारा छायांकन ठीक ठाक उतर गया ।रुको !तुम्हें ऐसा ही एक प्रकृति चित्रण दिखाता हूँ । 
वह राहुल को इशारा कर थोड़ी दूर पड़ी एक थालीनुमा कुरई मंगाता है और उसकी तलहटी सामने करते हुए बताता है कि यह छायांकन (सीलूएट )इनकी दादी ने सरपत के के रेड़ को विभिन्न रंगों में रंग कर टेकुरी से उकेरा है । दृश्य की आइडिया में में मैंने जरूर मदद किया था । 
मैं इस कुरई को देखता हूँ तो देखता ही रह जाता हूँ । दोआबे की धारा के पास बोरियों में बालू भर कर अपने ऊँटों की पीठ पर लादे दो तीन ऊँटहारे अपने अपने ऊँटों के रस्से पकड़े हुए कतारबद्ध चले जा रहे हैं । पृष्ठभूमि में यहाँ -वहाँ पेड़ दीख रहे हैं । ऊपर दर्शित आकाश का रंग गोधूलि बेला का समय इंगित कर रहा है । रंगों का सामंजश्य बड़ा ही स्वाभाविक है । मेरे मन में विचार उठता है कि सच है ;जब भावुकता या संवेदना किसी कलाकार के मस्तिष्क में कहीं घनीभूत हो जाती है तो उचित अवसर पर वह कला के किसी न किसी विधा के रूप में हमारे सामने अवतरित हो जाती हैं । यदि कविता रूप में उतरी तो कवि ,शिल्प रूप में उतरी तो शिल्पी और चित्र रूप में उतरी तो चित्रकार । ऐसे ही अनेक रूप हैं कला और कलाकार के ।
***********मुझे लगा कि इस गड़ेरिया की आँखों और मस्तिष्क में किसी घटना या दृश्य को पकड़ने (कैच )करने की एवं अपनी किसी कृति में उकेर देने की विलक्षण दक्षता है जिसे हम मानवेतर या दैवी कह सकते हैं । अब मेरा मन परिस्थितिजन्य सोच से उबरने का उपक्रम करने लगा । हवा के मंथर झोंकों का ,मैं चारपाई पर लेट कर ,थोड़ी देर आनन्द लेना चाहता था । दिमाग को झटका दिया और ग्राम नागरिक से बोल पड़ा कि आज कल हमारी गर्मी की छुट्टियाँ हैं और ऐसी ही कुछ इधर उधर की बातों पर आप के अनुभव और सोच को जानने मैं आप के पास आ गया था । कला की गूढ़ता तो मुझे नहीं मालूम परंतु कलाकृतियाँ मुझे अच्छी लगती हैं । मैं कला की इस विधा पर फिर कभी कुछ और जानने की अपेक्षा करूँ गा ।
गँवई प्रसंग में भी आप अपनी बेबाक बातों के लिए जाने जाते हैं । क्या आप बतायें गे कि हमारे शिव पुरवा के लिए स्वराज या आजादी के क्या मायने ,नुकसान या फायदे हुए हैं ?
अच्छा तो सुनो । मैं इस विषय में कुछ स्वतः की अनुभूति बताता हूँ । मेरे गाँव में स्वराज का पहला संदेश चुनाव के रूप में आया था । तब से समय समय पर दस्तक देकर वापस दिल्ली ,लखनऊ चला जाता है और छोड़ जाता है गाँव में गुटबन्दी ,मनमुटाव ,रिश्तों में दरार व सबके सपनों पर पत्थर पानी । पिछले पचास वर्षों में यह स्वराज सड़क के रास्ते दो किलोमीटर दूर ,बिजली के तारों के रास्ते एक किलोमीटर दूर एवं नहर के पानी वाले रास्ते पाँच किलोमीटर दूर पहुँच कर आगे बढ़ गया है । दो वर्ष पहले दौड़ धूप करके प्रधान ने गाँव तक बिजली के तार खिचवा लाया और टेस्टिंग कर शिव पुरवा की पूरी आबादी को बिजली के लट्टुओं से रात में जगमग दिया । उस दिन गाँव में क्या उत्साह था । सबका मन बागबाग हो गया । लोग दौड़ पड़े कि स्वराज आ गया । परंतु कुछ दिनों बाद ए तार बेजान हो गए । सरकारी लश्कर आया और गया परंतु ए बेजान तार यत्र तत्र आज भी बेकार पड़े हैं । उधर खेतों का नहर के पानी से भेंट भी नहीं हुआ कि टैक्स वसूली का दबाव गाँव के काश्तकारों पर पड़ने लगा ।घुरहू ने कभी सहकारिता सोसाइटी से खाद लिया ही नहीं ,परंतु उसके नाम सोसाइटी का कर्ज सुरसा की तरह ब्याज दर ब्याज बढ़ता जा रहा है । उसने मंदिर में शीश झुकाया ,मस्जिद में सजदा किया ,प्रधान ,साहूकार के यहाँ गुहार लगाया । परंतु सोसाइटी के भ्रष्ट सचिव को द्रवित नहीं कर सका । घुरहू आज भी वह दिन याद करता है जब सोसाइटी के सचिव ने गवाही के नाम पर किसी दूसरे कागज पर अंगूठा का निसान लगवा लिया था । क्या यह सचिव किसी क्रूर जमींदार से कम अतताई और भ्रष्ट है ?रामू अहीर ने सचिव के यहाँ पहुँच लगा कर एक भैंस खरीदने के लिए आठ हजार मंजूर कराया । किन्तु बिचौली तिकड़म के उपरांत उसे छः हजार ही मिले । जैसे तैसे जुगाड़ कर एक दूधारु 
भैंस खरीदा । गरीब पर गरीबी कुछ ज्यादा ही मेहरबान होती है । कुछ महीने बाद उसकी भैंस बीमार पड़ गई । रामू दौड़ा दौड़ा पास के बाजार में पशु डाक्टर के यहाँ पहुँचा । पता चला कि डाक्टर बाबू तो शहर गए हैं । निराश लौट कर वह अनेक देशी दवाई दिया परंतु अपनी भैंस को बचा न सका । अब ब्लॉक वाले भैंस के मरने का प्रमाण माँग रहे हैं । उत्पीड़न और वसूली वाले दुःस्वप्न का उसके घर साक्षात आगमन हो चुका है । स्वाधीनता से अभी तो कुछ नहीं बदला है । लोगों के जेहन में अंग्रेजीयत यथावत बनी हुई है ।हमें इस चारित्रिक संकट से उबरना ही होगा । जब तक नहीं उबरें गे अपेक्षित स्वराज हम तक नहीं पहुँचे गा । 
बुद्धू गड़ेरिया इतना कहते कहते बहुत गंभीर हो जाता है । चाची आवाज देती हैं "देखिए शायद चरवाहे लौट रहे हैं । दूर ऊपर आकाश में धूल उड़ने लगी है । "
मेरा ध्यान घड़ी पर जाता है । साढ़े चार बज रहे हैं । 
ग्रामनागरिक यह कहते हुए चल देता है कि सुनील तब तक तुम चाची से बात करो । शाम को खाना खा कर जाना ।
चाचा जी फिर कभी कहते हुए उठ पड़ा और उन्हें प्रणाम करते हुए घर की राह लिया ।
(आप ने इस अंक में बुद्धू गड़ेरिया के जीवन के दो आयाम देखा -एक कलाकार का ,दूसरा नागरिक का । एक कलाकार हृदय भी देश में व्याप्त चरित्र संकट से बेचैन है परंतु निराश नहीं । अगले अंकों में इस ग्राम नागरिक के अनेकानेक जीवन आयामों से एवं अंचलिकता का सार्वभौमिकता से मिलन कराने का प्रयास जारी रहेगा । रचना पूर्णरूपेण साहित्यिक एवं काल्पनिक है । ) क्रमशः -----
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second edition 
4 th june 2025 ;Varanasi 
                                       

रविवार, 22 मार्च 2020

जनता कर्फ्यू 22 मार्च 2020

***************माननीय प्रधान मन्त्री जी के अपील का अनुसरण करते हुए पूरा देश आज जनता कर्फ्यू पर है।संकट के इस दौर में यह अच्छा लग रहा है कि हम भारतीय प्रधान मंत्री जी के आह्वान पर इस कर्फ्यू को शत प्रतिशत सफल बनाने जा रहे हैं। इष्ट मित्र व्हाट्सएप्प ,फेसबुक ,ट्विटर ,इत्यादि पर सन्देश के माध्यम से, करोना विभीषिका और उससे निपटने के लिए जनता कर्फ्यू सफल बनाने के लिए सन्देश पर सन्देश की झड़ी लगाए हुए हैं।प्रिंट और टीवी मिडिया का तो कहना ही क्या ;लगता है देश दुनियाँ की अन्य खबरों को करोना ने  पहले ही पूर्णरूपेण निगल लिया।पूरे विश्व में मानव जाति के लिए बड़ा कठिन समय है।
***************जब हम घरों बंद हैं हमारे समाज का एक वर्ग पूरी तन्मयता से हमारी सेवा में संलग्न है। उदाहरण के लिए सीमाओं पर सैनिक ;स्वास्थ्य सीमा पर डाक्टर और स्वाथ्य कर्मी ;सफाई मोर्चे पर सफाई कर्मी ; राशन ,सब्जी ,दवा के मोर्चे पर व्यापारी /आपूर्तिकर्ता और सभी के साथ समन्वय तथा व्यवस्था मोर्चे पर प्रशासन और पुलिसकर्मी इस महामारी से जूझने में अहर्निश डटे हुए हैं। अतः हमारा दायित्व बनता है कि हम लोग उनके प्रति कृतज्ञता ब्यक्त करें।ऐसा सन्देश देने के लिए, प्रधान मन्त्री के सुझाव अनुसार, हम सभी लोग घरों से बाहर निकल अपने दरवाजों या बरामदों में आकर आज सायं पॉँच बजे करतल व तुमुल घण्टा घड़ियाल ध्वनि से इन कर्मवीरों के प्रति अपनी कृतज्ञता ब्यक्त करें और इनका हौसला बढ़ाएँ।ये आवश्यक सेवा करने वाले लोग इस विपदा में हमारी लाइफ लाइन हैं।
***************अंततः आशा है कि जनता कर्फ्यू ,लॉक डाउन,क्वारंटीन और सोशल डिस्टैन्सिंग के बहुत अच्छे परिणाम आएँ गे और इस महा संकट से उबरने में भारत कामयाब होगा। इस बीच अपेक्षा है कि हम धैर्य के साथ सोशल डिस्टैन्सिंग और एकान्त वास  बढ़ाए रखें।साथ ही हम सब अंतर्मन से प्रार्थना करें कि प्रभु की प्रेरणा हो और कोई विज्ञानी पवन पुत्र बन यथाशीघ्र ऐसी संजीवनी सी दवा ढूंढ़ लाए जो इस करोना का शर्तिया तोड़ सिद्ध हो।आज 'जा पर जा कर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू।' की भी अग्निपरिच्छा है।विश्व का कल्याण हो और मानवता विजयी।-------------------------------------------------------------------------------------------------मंगला सिंह /मंगलवीणा
वाराणसी ;दिनाँक 22 मार्च 2020 --------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------mangal-veena.blogspot.com@gmail.com
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