गुरुवार, 10 मई 2012

साबरमती से सेवाग्राम (१)

एक सुअवसर १५ अक्टूबर सन २००० को मिला, जब अहमदाबाद यात्रा के दौरान मैं साबरमती आश्रम पहुंचा था | इधर-उधर घूमते हुए दत्तचित्त होकर आश्रम के प्रांगण से अनुभूति के तार जोड़ने का प्रयास करता रहा | पहली बार महात्मा गाँधी की अवधारणा वाले ग्राम-स्वराज एवं स्वतंत्रता के सरलार्थ को समझने का ही नही, देखने का मौका मिला | संयोगवश शरद ऋतु का समय था और रामराज्य का स्वरुप निर्धारित करने वाले गोस्वामी की अभिब्यक्ति याद आई, "पंक न रेनु सोह असि धरनी,नीति निपुन नृप कै जसि करनी |" अस्तु शारदीय शुचिता, सहजता एवं समरसता ने गाँधी-दर्शन के प्रति मेरी समझ को और आसान कर दिया | 
     समय आगे बढ़ा | सामाजिक सीकड़ों में बंधा मैं, एक साधारण आदमी, जैसे जीते बना जिया और निज जिम्मेदारियों में कभी उलझा और कभी सुलझा रहा | परन्तु जब भी साबरमती आश्रम  का ख्याल आता बड़ा सुकून मिलता | फिर पश्चाताप होता कि महात्मा ने परतंत्रता की बेड़ियाँ  तोड़कर, जो भारत सौपने का संकल्प लिया था, वह हमें क्यों नहीं मिला? कहाँ खो गया? सच तो यह है कि महात्मा के सपनों का भारत किसी पल  अपहृत  हो गया और हमें वह स्वतंत्र भारत मिला जिसमें न  सहजता है न सहिष्णुता है, न ग्राम-स्वराज  है न स्वाबलंबन, न समरसता है न संस्कृति और न सत्य ही है न अहिंसा | यहाँ तक कि न वह तालीम है न वे वैष्णव जन | बचे असहयोग एवं अवज्ञा सो वे तो खूब फूल-फल रहे हैं परन्तु सविनय विहीन होकर | फिर क्या मिला? मिला केवल ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर - सत्ता हस्तांतरण | अंग्रेजों ने चार्ज दिया और जैसा का तैसा भारतीय समकक्षों ने चार्ज ले लिया- बस |  
     जब भी किसी विचारवान से भारत के विकास  की बात करेंगें, वह गाँवों के विकास  को प्रथम एवं सर्वोच्च शर्त मानेगा | फिर भी गाँव उजड़ रहे हैं | शहरों की संख्या एवं उनकी आबादी आशातीत बढ़ रही है | ग्रामोद्योग को भारी उद्योग लगभग निगल चुके हैं | उत्पादक गिनती के हैं और दैत्याकार हो गये हैं | जहाँ देखिये उपभोक्ता ही उपभोक्ता | क्रयशक्तिहीन एवं अनुत्पादक जनसंख्या लगातार बढ़ रही है, जिसे गरीब कहते हैं | पूर्वीयता दम तोड़ रही है और पश्चिमीयता हमें आधुनिक सभ्य बना रही है | आज किसी की कोई भी उपलब्धि(गेन) सराहनीय है | साधन के शुध्द या अशुध्द होने का कोई मायने नहीं रह गया है | थ्योरी बखान गाँधी की अच्छी लगती है, परन्तु हम प्रेक्टिकल हक्सले एवं मैकाले का करते हैं | अब सह-उत्पाद के रूप में हम टूटन, घुटन, तनाव व भागम-भागी भी पाने लगे हैं | ये सह-उत्पाद ही हमारी सहजता, सरसता एवं संस्कृति को धरती की जलधारा भाँति नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं | 
      महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता पुकारने वाले, उन्हें हर अवसर-सुअवसर पर नमन करने वाले तथा उग्र तपन में गाँधी नाम छतरी की शरण लेने वाले हम भारतीय यदि उनके सपनों के भारत को पुनः प्रतिष्ठित करने का पारदर्शी एवं एकमत प्रयास नहीं करते हैं तो इस विरोधाभास के लिए इतिहास के निरंतर दौर में आने वाली पीढियां हमें कोसेंगी | अब भी रुकने, सोचने और सही एवं शुध्द रास्ते पर चल पड़ने का समय है | बीते समय ने गाँधी-दर्शन को विश्व में सर्वोत्तम एवं नमनीय पाया है |
      मैं साबरमती को तीर्थ मानता हूँ क्योंकि वहीं मुझे सहजता, सरलता एवं भारतीय आत्मा की एक झलक मिली थी | आचरण की शुध्दता एवं ग्राम-स्वराज अवधारणा को  इंगित करने वाली साबरमती आश्रम-भूमि को शत-शत नमन | क्रमशः..................
अंततः  
If means are not pure (Gandhian), the ends (achievements) will lead to tensions and miseries. 

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